नवजात शिशु के स्वास्थ्य की देखभाल हर माता-पिता की जिम्मेदारी होती है. बच्चों के पोषण और ओवरऑल विकास के लिए लिए माता-पिता हमेशा तत्पर रहते हैं. कई बार बच्चों की आंखों में परेशानी हो जाती है, हालांकि, बहुत से लोग बच्चों की आंखों की परेशानी को नजरअंदाज कर देते हैं. उन्हें लगता है कि यह समस्या अपने आप ठीक हो जाएगी, लेकिन वो यह नहीं जानते कि आगे चलकर छोटी समस्या बड़ी बन सकती है. जन्म के समय ही कुछ दृष्टि संबंधी विकार हो सकते हैं. जो आगे चलकर बच्चों की आंखों पर बुरा असर डाल सकता है. विशेषज्ञों का मानना है कि शिशु की आंखों की प्रारंभिक जांच उनकी दृष्टि को सुरक्षित रखने के साथ-साथ गंभीर नेत्र रोगों की रोकथाम में भी मददगार होती है.
कब करानी चाहिए आंखों की जांच?
डॉक्टरों के अनुसार, नवजात शिशु की पहली नेत्र जांच जन्म के तुरंत बाद करानी चाहिए. यदि शिशु समय से पूर्व जन्मा हो, परिवार में दृष्टि संबंधी विकारों का कोई हिस्ट्री हो या शिशु की आंखों में किसी भी प्रकार की असामान्यता दिखे,तो विशेष रूप से जांच कराना आवश्यक हो जाता है. इसके अलावा, यदि शिशु की आंखों में लगातार पानी आता है, लालिमा बनी रहती है, या वह रोशनी पर प्रतिक्रिया नहीं देता तो बिना आंखों के डॉक्टर से मिलकर जांच करवानी चाहिए. आइए, जानें कि यह जांच क्यों जरूरी है और इसे कब कराना चाहिए.
जन्मजात विकारों की पहचान
कुछ शिशु जन्म से ही मोतियाबिंद (कैटरैक्ट), ग्लूकोमा या रेटिना से जुड़ी समस्याओं के साथ पैदा हो सकते हैं. इनका समय रहते इलाज करने से ठीक हो सकता है.
दृष्टि विकास की निगरानी
जन्म के बाद शिशु की दृष्टि धीरे-धीरे विकसित होती है. यदि किसी समस्या के संकेत प्रारंभिक अवस्था में मिल जाएं तो सुधार की संभावना बढ़ जाती है.
रेटिनोपैथी ऑफ प्रीमैच्योरिटी
समय से पहले जन्म लेने वाले शिशुओं में यह गंभीर नेत्र रोग हो सकता है, जिससे अंधेपन की आशंका रहती है. नियमित जांच से इसे रोका जा सकता है.
संक्रमण और एलर्जी
नवजात शिशु की आंखें संक्रमण के प्रति संवेदनशील होती हैं. प्रारंभिक जांच से किसी भी प्रकार की जलन, लालिमा या आंखों से अधिक पानी निकलने जैसी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है.